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स॒म्यक् स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ऽअ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः। ए॒तेऽअ॑र्षन्त्यू॒र्मयो॑ घृ॒तस्य॑ मृ॒गाऽइ॑व क्षिप॒णोरीष॑माणाः ॥९४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्यक्। स्र॒वन्ति॒। स॒रितः॑। न। धेनाः॑। अ॒न्तः। हृ॒दा। मन॑सा। पू॒यमा॑नाः। ए॒ते। अ॒र्ष॒न्ति॒। ऊ॒र्मयः॑। घृ॒तस्य॑। मृ॒गाःऽइ॑व। क्षि॒प॒णोः। ईष॑माणाः ॥९४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:94


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अन्तः, हृदा) शरीर के बीच में (मनसा) शुद्ध अन्तःकरण से (पूयमानाः) पवित्र हुई (धेनाः) वाणी (सरितः) नदियों के (न) समान (सम्यक्) अच्छे प्रकार (स्रवन्ति) प्रवृत्त होती हैं, उनको जो (एते) ये वाणी के द्वार (घृतस्य) प्रकाशित आन्तरिक ज्ञान की (ऊर्मयः) लहरें (क्षिपणोः) हिंसक जन के भय से (ईषमाणाः) भागते हुए (मृगा इव) हरिणों के तुल्य (अर्षन्ति) उठती तथा सबको प्राप्त होती हैं, उनको भी तुम लोग जानो ॥९४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे नदी समुद्रों को जाती हैं, वैसे ही आकाशस्थ शब्दसमुद्र से (आकाश का शब्द गुण है इससे) वाणी विचरती हैं, तथा जैसे समुद्र की तरङ्गें चलती हैं, वा जैसे बहेलियों से डरपे हुए मृग इधर-उधर भागते हैं, वैसे ही सब प्राणियों की शरीरस्थ विज्ञान से पवित्र हुई वाणी प्रचार को प्राप्त होती हैं। जो लोग शास्त्र के अभ्यास और सत्य-वचन आदि से वाणियों को पवित्र करते हैं, वे ही शुद्ध होते हैं ॥९४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सम्यक्) (स्रवन्ति) क्षरन्ति (सरितः) नद्यः। सरित इति नदीनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१३) (न) इव (धेनाः) वाचः। धेनेति वाङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.११) (अन्तः) शरीरान्तर्व्यवस्थितेन (हृदा) विषयहारकेण (मनसा) शुद्धान्तःकरणेन (पूयमानाः) पवित्राः सत्यः (एते) (अर्षन्ति) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गाः (घृतस्य) प्रकाशितस्य विज्ञानस्य (मृगा इव) (क्षिपणोः) हिंसकस्य भयात् (ईषमाणाः) भयात् पलायमानाः ॥९४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! या अन्तर्हृदा मनसा पूयमाना धेनाः सरितो न सम्यक् स्रवन्ति, ता ये चैते घृतस्योर्मयः क्षिपणोरीषमाणा मृगा इवार्षन्ति, ताँश्च यूयं विजानीत ॥९४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्काराः। यथा नद्यः समुद्रान् गच्छन्ति, तथैवान्तरिक्षस्थाच्छब्दसमुद्राद् वाचो विचरन्ति। यथा समुद्रस्य तरङ्गाश्चलन्ति यथा च व्याधाद् भीता मृगा धावन्ति, तथैव सर्वेषां प्राणिनां शरीरस्थेन विज्ञानेन पवित्राः सत्यो वाण्यः प्रचरन्ति, ये शास्त्राभ्याससत्यवचनादिभिर्वाचः पवित्रयन्ति, त एव शुद्धा जायन्ते ॥९४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी नदी समुद्राला मिळते तशी आकाशातील शब्द समुद्रात (शब्द हा आकाशाचा गुण आहे) वाणी विहार करते. जशा समुद्रात लहरी उठतात व शिकाऱ्यांच्या भयाने मृग इकडे तिकडे पळतात, तसेच सर्व प्राण्यांच्या अंतस्थ विज्ञानाने पवित्र झालेली वाणी प्रकट होते; परंतु जे लोक शास्त्राचा अभ्यास व सत्यवचन इत्यादींनी वाणीला पवित्र करतात तेच पवित्र असतात.